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इस पूरे मामले में सबसे रोचक है महात्मा गांधी के तीसरे पुत्र रामदास गांधी का नाथूराम गोडसे को पत्र लिखना। वैसे तो उन दिनों दक्षिण अफ्रीका के डरबन में रह रहे गांधीजी के दूसरे पुत्र मणिलाल गांधी ने भी नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे की फांसी की सज़ा को उम्रक़ैद में बदलवाने की अपील की थी। उन्होंने इस सिलसिले में एक तार राजाजी को भेजा था, लेकिन पिता की चिता को अग्नि देने वाले रामदास गांधी की चिट्ठी भावुक कर देने वाली है। वह चिट्ठी, जो उन्होंने अपने पिता के हत्यारे को लिखी।
17 मई 1949 को वे लिखते हैं, ‘प्रिय श्री नाथूराम गोडसे जी, इस पत्र का लेखक उस व्यक्ति का पुत्र है जिसकी हत्या को आप बहुत गौरव का काम मानते हैं। एक दिन आपको एहसास होगा कि आपने केवल मेरे पिता की नश्वर देह की हत्या की, इससे अधिक कुछ नहीं। क्योंकि मेरे ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में लाखों दूसरे लोगों के दिलों पर भी मेरे पिता की आत्मा आज भी राज करती है।’ सत्य और अहिंसा के पक्ष में तर्क देते हुए उन्होंने गोडसे से ‘अपनी हरकत पर सोचने को’ कहा था।
उस समय शिमला की जेल में बंद नाथूराम ने 3 जून, 1949 को जवाब दिया। उसने उन्हें ‘मेरे प्रिय भाई रामदास एम गांधी’ लिखा और कहा, ‘मैं न तो अपने सभी भाव लिख पाने की हालत में हूं और न ही आपसे निजी तौर पर मिल पाने की। लेकिन आप निश्चित रूप से मुझसे फांसी के पहले व्यक्तिगत रूप में मिल पाने की स्थिति में हैं।’ साथ ही, उसने रामदास गांधी को महात्मा गांधी के कुछ प्रिय शिष्यों के साथ आने को कहा ताकि ‘सत्य की तलाश’ में उनसे बहस कर सके और फिर वे किसी नतीजे पर पहुंच सकें।
13 जून को रामदास गांधी ने इस पत्र का जवाब दिया। उन्होंने ‘सिर्फ़ सत्य के आधार पर’ बातचीत का प्रस्ताव स्वीकार किया। उन्होंने ये तीनों पत्र प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और राजाजी को भेजे। उन्होंने अनुरोध किया कि विनोबा भावे, किशोरीलाल और बालकृष्ण भावे के साथ गोडसे से जेल में मिलने की अनुमति उन्हें दी जाए। पत्र में रामदास गांधी ने दिल्ली में मुलाक़ात कराने का अनुरोध किया।
सरदार पटेल का हस्तक्षेप
नेहरू ने रामदास गांधी की चिट्ठी मिलने पर यह तो कहा कि वे इसे उचित नहीं समझते लेकिन चूंकि मामला गृह मंत्रालय से जुड़ा था तो उन्होंने फैसला सरदार पटेल और राजाजी पर छोड़ दिया।
16 जून को सरदार पटेल ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा, ‘मुझे वे सभी ख़त मिल गए हैं। मेरी मान्यता है कि रामदास गांधी को गोडसे से नहीं मिलना चाहिए। इस बात की पूरी संभावना है कि उससे किसी शहीद की तरह व्यवहार करने की कोशिश की जा रही है। जिस बातचीत का प्रस्ताव रामदास दे रहे हैं, वो गोडसे के अंतिम दिनों को थोड़ा सा गौरव दे देगी।’ 22 जून को पटेल के इस पत्र पर आख़िरी मुहर लगाते हुए राजाजी ने भी रामदास गांधी को ऐसी अनुमति देने से इनकार कर दिया।
रॉबर्ट पेन सहित कई लेखकों ने रामदास गांधी का ये पत्राचार अचानक ख़त्म होने की बात की है। लेकिन दस्तावेज़ बताते हैं कि गांधीजी के सहयोगी किशोरीलाल जी चाहते थे कि वे रामदास के साथ गोडसे से मिलें। इस संबंध में जब वे पटेल से मिले तो सरदार ने उन्हें अपनी राय साफ-साफ बता दी। किशोरीलालजी ने ये संदेश रामदास गांधी को दिया।
इसके बाद 26 जून को नेहरू को एक पत्र में रामदास गांधी ने लिखा, ‘मेरा इरादा कभी ऐसा कुछ करने का नहीं था, जो आप तीनों को नापसंद हो। मैंने गोडसे का मामला ईश्वर पर छोड़ देने का फ़ैसला किया है। क्योंकि ईश्वर ही है जिसने मुझसे गोडसे को दोनों ख़त लिखने पर बाध्य किया।’ 15 नवंबर 1949 को नाथूराम और नारायण आप्टे को अंबाला की जेल में फांसी दी गई।
गांधी: भगत सिंह की फांसी की सज़ा रुकवाने के लिए उन्होंने वायसराय को पत्र लिखे: जीवन भर हर तरह की हिंसा के ख़िलाफ़ रहे महात्मा गांधी ने हमेशा फांसी की सज़ा का विरोध किया।
गांधी हत्या केस की फाइलों में कई राज़ तो दबे ही हैं, साथ में कुछ बेहद रोचक क़िस्से भी हैं। जीवन भर हर तरह की हिंसा के ख़िलाफ़ रहे महात्मा गांधी ने हमेशा फांसी की सज़ा का विरोध किया। भगत सिंह की फांसी की सज़ा रुकवाने के लिए उन्होंने वायसराय को पत्र लिखे।
उन्होंने कहा था, ‘मृत्यदंड की बुराई है कि यह व्यक्ति को सुधरने का मौक़ा नहीं देता। फांसी ऐसा क़दम है, जिसे वापस नहीं लिया जा सकता। अगर आप सोचते हैं कि निर्णय में ज़रा भी खामी है तो मैं निवेदन करूंगा कि फ़िलहाल इसे टाल दीजिए ताकि आगे इसकी समीक्षा की जा सके।’ यह विडंबना ही है कि गांधी के हत्यारों को भी फांसी की सज़ा मिली।
नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फांसी की सज़ा सुनाई गई 10 फरवरी 1949 को। लाल क़िले में चली जस्टिस आत्माचरण की विशेष फ़ौजदारी अदालत ने ये सजा सुनाई। वहीं विष्णु करकरे, गोपाल गोडसे, मदनलाल पाहवा, शंकर किस्तैया और दत्तात्रेय परचुरे को आजीवन कारावास की सज़ा हुई। इसके ख़िलाफ़ सभी दोषियों ने पंजाब हाई कोर्ट में अपील की। बाक़ी सबने ख़ुद को निर्दोष साबित करने के लिए अपील की, वहीं नाथूराम ने यह साबित करने के लिए कि इस साजिश में वह अकेला था।
लेकिन पहले बीस जनवरी को हत्या के प्रयास और फिर 30 जनवरी को हत्या से जुड़े इतने सबूत पुलिस ने जुटा लिए थे कि अदालत ने पर्याप्त सबूतों के अभाव में सिर्फ़ सावरकर को रिहा किया। लेकिन बाद में बने कपूर आयोग की जांच में साबित हुआ कि सावरकर के ख़िलाफ़ कई ज़रूरी सबूत अदालत में पेश ही नहीं किए गए। पंजाब हाई कोर्ट ने शंकर किस्तैया और परचुरे को तकनीकी ख़ामियों के चलते रिहा कर दिया लेकिन बाक़ी सबकी सज़ा बरक़रार रखी। फिर सभी अभियुक्तों ने प्रीवी काउंसिल में दरखास्त लगाई। वहां उनका आवेदन ख़ारिज कर दिया गया।
इसके बाद अलग-अलग तरीक़े से गोडसे की फांसी की सज़ा माफ़ कराने की कोशिशें हुईं। नाथूराम के पिता ने गवर्नर जनरल के सामने दया याचिका लगाई, जो खारिज हो गई। दूसरे दोषियों के परिवारों ने भी ऐसी ही अर्जियां लगाईं। राजाजी (सी राजगोपालाचारी) ने वे भी ठुकरा दीं।
कोएनार्ड अर्ल्स्ट ने अपनी किताब ‘व्हाई आई किल्ड द महात्मा’ में लिखा है कि तत्कालीन क़ानून मंत्री डॉ. अम्बेडकर नाथूराम के वकील से मिले थे और कहा था कि वह फांसी की जगह आजीवन कारावास करा सकते हैं। लेकिन नाथूराम ने मना कर दिया। इस पर अम्बेडकर ने उसकी तारीफ़ की थी। बाद में भी डॉ. अम्बेडकर ने संविधान सभा में फांसी की सज़ा ख़त्म करने की मांग उठाई थी।
कांग्रेस के भीतर उस दौर में महात्मा गांधी के सिद्धान्तों की दुहाई देते हुए विनोबा भावे सहित कई वरिष्ठ नेताओं ने गृह मंत्री सरदार पटेल और तत्कालीन गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी को पत्र लिखे। असम राज्य कांग्रेस के अध्यक्ष देबेश्वर शर्मा ने 20 सितंबर 1949 को राजाजी को लिखे पत्र में दलील दी कि अगर गांधी जी उस हमले में बच गए होते तो निश्चित रूप से हमलावरों को माफ़ कर देते। महाराष्ट्र कांग्रेस के नेता जी वी मावलंकर ने लिखा कि मृत्युदंड आंख के बदले आंख के बर्बर सिद्धांत का प्रतीक है, जिनका गांधी जी विरोध करते थे।
लेकिन सरदार पटेल ने राजाजी से हुए पत्र व्यवहार में उन्होंने शर्मा के पत्र पर अफ़सोस जताते हुए कहा कि जब कांग्रेस में इतने ऊंचे पदों पर बैठे लोग ऐसी बकवास करते हैं तो मुझे दुख होता है। बाद में पटेल ने ऐसे सभी पत्रों के जवाब में एक बयान जारी किया। उन्होंने कहा, ‘यह हत्या निश्चित रूप से हमारे समय की सबसे शर्मनाक और विश्वासघाती घटना है। पूरी दुनिया इससे सदमे में है। दोनों क़ैदियों ने मुक़दमे के दौरान या उसके बाद अफ़सोस या पश्चात्ताप के कोई संकेत नहीं दिए जबकि उम्र और शिक्षा, दोनों से वे इतने परिपक्व हैं कि अपने अपराध की गंभीरता महसूस कर सकें। इसलिए इस मामले में सिवा इसके कोई बात नहीं हो सकती कि क़ानून को अपना काम करने दिया जाए।’
उन्होंने कहा था, ‘मृत्यदंड की बुराई है कि यह व्यक्ति को सुधरने का मौक़ा नहीं देता। फांसी ऐसा क़दम है, जिसे वापस नहीं लिया जा सकता। अगर आप सोचते हैं कि निर्णय में ज़रा भी खामी है तो मैं निवेदन करूंगा कि फ़िलहाल इसे टाल दीजिए ताकि आगे इसकी समीक्षा की जा सके।’ यह विडंबना ही है कि गांधी के हत्यारों को भी फांसी की सज़ा मिली।
नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फांसी की सज़ा सुनाई गई 10 फरवरी 1949 को। लाल क़िले में चली जस्टिस आत्माचरण की विशेष फ़ौजदारी अदालत ने ये सजा सुनाई। वहीं विष्णु करकरे, गोपाल गोडसे, मदनलाल पाहवा, शंकर किस्तैया और दत्तात्रेय परचुरे को आजीवन कारावास की सज़ा हुई। इसके ख़िलाफ़ सभी दोषियों ने पंजाब हाई कोर्ट में अपील की। बाक़ी सबने ख़ुद को निर्दोष साबित करने के लिए अपील की, वहीं नाथूराम ने यह साबित करने के लिए कि इस साजिश में वह अकेला था।
लेकिन पहले बीस जनवरी को हत्या के प्रयास और फिर 30 जनवरी को हत्या से जुड़े इतने सबूत पुलिस ने जुटा लिए थे कि अदालत ने पर्याप्त सबूतों के अभाव में सिर्फ़ सावरकर को रिहा किया। लेकिन बाद में बने कपूर आयोग की जांच में साबित हुआ कि सावरकर के ख़िलाफ़ कई ज़रूरी सबूत अदालत में पेश ही नहीं किए गए। पंजाब हाई कोर्ट ने शंकर किस्तैया और परचुरे को तकनीकी ख़ामियों के चलते रिहा कर दिया लेकिन बाक़ी सबकी सज़ा बरक़रार रखी। फिर सभी अभियुक्तों ने प्रीवी काउंसिल में दरखास्त लगाई। वहां उनका आवेदन ख़ारिज कर दिया गया।
इसके बाद अलग-अलग तरीक़े से गोडसे की फांसी की सज़ा माफ़ कराने की कोशिशें हुईं। नाथूराम के पिता ने गवर्नर जनरल के सामने दया याचिका लगाई, जो खारिज हो गई। दूसरे दोषियों के परिवारों ने भी ऐसी ही अर्जियां लगाईं। राजाजी (सी राजगोपालाचारी) ने वे भी ठुकरा दीं।
कोएनार्ड अर्ल्स्ट ने अपनी किताब ‘व्हाई आई किल्ड द महात्मा’ में लिखा है कि तत्कालीन क़ानून मंत्री डॉ. अम्बेडकर नाथूराम के वकील से मिले थे और कहा था कि वह फांसी की जगह आजीवन कारावास करा सकते हैं। लेकिन नाथूराम ने मना कर दिया। इस पर अम्बेडकर ने उसकी तारीफ़ की थी। बाद में भी डॉ. अम्बेडकर ने संविधान सभा में फांसी की सज़ा ख़त्म करने की मांग उठाई थी।
कांग्रेस के भीतर उस दौर में महात्मा गांधी के सिद्धान्तों की दुहाई देते हुए विनोबा भावे सहित कई वरिष्ठ नेताओं ने गृह मंत्री सरदार पटेल और तत्कालीन गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी को पत्र लिखे। असम राज्य कांग्रेस के अध्यक्ष देबेश्वर शर्मा ने 20 सितंबर 1949 को राजाजी को लिखे पत्र में दलील दी कि अगर गांधी जी उस हमले में बच गए होते तो निश्चित रूप से हमलावरों को माफ़ कर देते। महाराष्ट्र कांग्रेस के नेता जी वी मावलंकर ने लिखा कि मृत्युदंड आंख के बदले आंख के बर्बर सिद्धांत का प्रतीक है, जिनका गांधी जी विरोध करते थे।
लेकिन सरदार पटेल ने राजाजी से हुए पत्र व्यवहार में उन्होंने शर्मा के पत्र पर अफ़सोस जताते हुए कहा कि जब कांग्रेस में इतने ऊंचे पदों पर बैठे लोग ऐसी बकवास करते हैं तो मुझे दुख होता है। बाद में पटेल ने ऐसे सभी पत्रों के जवाब में एक बयान जारी किया। उन्होंने कहा, ‘यह हत्या निश्चित रूप से हमारे समय की सबसे शर्मनाक और विश्वासघाती घटना है। पूरी दुनिया इससे सदमे में है। दोनों क़ैदियों ने मुक़दमे के दौरान या उसके बाद अफ़सोस या पश्चात्ताप के कोई संकेत नहीं दिए जबकि उम्र और शिक्षा, दोनों से वे इतने परिपक्व हैं कि अपने अपराध की गंभीरता महसूस कर सकें। इसलिए इस मामले में सिवा इसके कोई बात नहीं हो सकती कि क़ानून को अपना काम करने दिया जाए।’
रामदास के पत्र
इस पूरे मामले में सबसे रोचक है महात्मा गांधी के तीसरे पुत्र रामदास गांधी का नाथूराम गोडसे को पत्र लिखना। वैसे तो उन दिनों दक्षिण अफ्रीका के डरबन में रह रहे गांधीजी के दूसरे पुत्र मणिलाल गांधी ने भी नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे की फांसी की सज़ा को उम्रक़ैद में बदलवाने की अपील की थी। उन्होंने इस सिलसिले में एक तार राजाजी को भेजा था, लेकिन पिता की चिता को अग्नि देने वाले रामदास गांधी की चिट्ठी भावुक कर देने वाली है। वह चिट्ठी, जो उन्होंने अपने पिता के हत्यारे को लिखी।
17 मई 1949 को वे लिखते हैं, ‘प्रिय श्री नाथूराम गोडसे जी, इस पत्र का लेखक उस व्यक्ति का पुत्र है जिसकी हत्या को आप बहुत गौरव का काम मानते हैं। एक दिन आपको एहसास होगा कि आपने केवल मेरे पिता की नश्वर देह की हत्या की, इससे अधिक कुछ नहीं। क्योंकि मेरे ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में लाखों दूसरे लोगों के दिलों पर भी मेरे पिता की आत्मा आज भी राज करती है।’ सत्य और अहिंसा के पक्ष में तर्क देते हुए उन्होंने गोडसे से ‘अपनी हरकत पर सोचने को’ कहा था।
उस समय शिमला की जेल में बंद नाथूराम ने 3 जून, 1949 को जवाब दिया। उसने उन्हें ‘मेरे प्रिय भाई रामदास एम गांधी’ लिखा और कहा, ‘मैं न तो अपने सभी भाव लिख पाने की हालत में हूं और न ही आपसे निजी तौर पर मिल पाने की। लेकिन आप निश्चित रूप से मुझसे फांसी के पहले व्यक्तिगत रूप में मिल पाने की स्थिति में हैं।’ साथ ही, उसने रामदास गांधी को महात्मा गांधी के कुछ प्रिय शिष्यों के साथ आने को कहा ताकि ‘सत्य की तलाश’ में उनसे बहस कर सके और फिर वे किसी नतीजे पर पहुंच सकें।
13 जून को रामदास गांधी ने इस पत्र का जवाब दिया। उन्होंने ‘सिर्फ़ सत्य के आधार पर’ बातचीत का प्रस्ताव स्वीकार किया। उन्होंने ये तीनों पत्र प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और राजाजी को भेजे। उन्होंने अनुरोध किया कि विनोबा भावे, किशोरीलाल और बालकृष्ण भावे के साथ गोडसे से जेल में मिलने की अनुमति उन्हें दी जाए। पत्र में रामदास गांधी ने दिल्ली में मुलाक़ात कराने का अनुरोध किया।
सरदार पटेल का हस्तक्षेप
नेहरू ने रामदास गांधी की चिट्ठी मिलने पर यह तो कहा कि वे इसे उचित नहीं समझते लेकिन चूंकि मामला गृह मंत्रालय से जुड़ा था तो उन्होंने फैसला सरदार पटेल और राजाजी पर छोड़ दिया।
16 जून को सरदार पटेल ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा, ‘मुझे वे सभी ख़त मिल गए हैं। मेरी मान्यता है कि रामदास गांधी को गोडसे से नहीं मिलना चाहिए। इस बात की पूरी संभावना है कि उससे किसी शहीद की तरह व्यवहार करने की कोशिश की जा रही है। जिस बातचीत का प्रस्ताव रामदास दे रहे हैं, वो गोडसे के अंतिम दिनों को थोड़ा सा गौरव दे देगी।’ 22 जून को पटेल के इस पत्र पर आख़िरी मुहर लगाते हुए राजाजी ने भी रामदास गांधी को ऐसी अनुमति देने से इनकार कर दिया।
रॉबर्ट पेन सहित कई लेखकों ने रामदास गांधी का ये पत्राचार अचानक ख़त्म होने की बात की है। लेकिन दस्तावेज़ बताते हैं कि गांधीजी के सहयोगी किशोरीलाल जी चाहते थे कि वे रामदास के साथ गोडसे से मिलें। इस संबंध में जब वे पटेल से मिले तो सरदार ने उन्हें अपनी राय साफ-साफ बता दी। किशोरीलालजी ने ये संदेश रामदास गांधी को दिया।
इसके बाद 26 जून को नेहरू को एक पत्र में रामदास गांधी ने लिखा, ‘मेरा इरादा कभी ऐसा कुछ करने का नहीं था, जो आप तीनों को नापसंद हो। मैंने गोडसे का मामला ईश्वर पर छोड़ देने का फ़ैसला किया है। क्योंकि ईश्वर ही है जिसने मुझसे गोडसे को दोनों ख़त लिखने पर बाध्य किया।’ 15 नवंबर 1949 को नाथूराम और नारायण आप्टे को अंबाला की जेल में फांसी दी गई।
08/08/2020 02:46 PM